उत्तराखंड में इस बार मॉनसून का प्रकोप कुछ ज्यादा ही कहर बरपाता दिखा। एक तरफ जहां बादल फटने और अतिवृष्टि ने जनजीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया, वहीं दूसरी ओर मानवजनित गलतियों ने आपदा को और भी भयानक बना दिया। देहरादून और टिहरी जिले की सीमा पर बांदल नदी के किनारे एक निर्माणाधीन रिजॉर्ट अब प्रशासन और पर्यावरण प्रेमियों के बीच चिंता का विषय बन गया है।
19 अगस्त 2022 को जब सरखेत गांव भीषण आपदा की चपेट में आया था, तब गांव के कई घर तबाह हो गए थे और पांच लोगों की जान चली गई थी। अब उसी क्षेत्र में, जहां एक समय केवल मलबा और खंडहर बचे थे, एक नया आलीशान रिजॉर्ट बन रहा है। इस निर्माण के लिए बांदल नदी के प्रवाह को कृत्रिम रूप से मोड़ दिया गया है।
स्थानीय भू-वैज्ञानिकों का कहना है कि यह क्षेत्र अत्यंत संवेदनशील और लैंडस्लाइड जोन में आता है। नदी के प्रवाह में छेड़छाड़ से न केवल आस-पास के पर्यावरण को नुकसान हो रहा है, बल्कि इससे निकटवर्ती पहाड़ी ढलानों पर भी प्रतिकूल असर पड़ रहा है।
रिजॉर्ट निर्माण के लिए जिस जगह का चयन किया गया है, वह नदी क्षेत्र के भीतर आता है, और यह स्थान टिहरी और देहरादून जिलों की सीमा पर स्थित है। हैरानी की बात यह है कि अब तक ना तो टिहरी प्रशासन और ना ही देहरादून प्रशासन की ओर से कोई प्रतिक्रिया या जांच सामने आई है।
स्थानीय निवासियों और पर्यावरणविदों का कहना है कि इतनी बड़ी निर्माण परियोजना के लिए पर्यावरणीय स्वीकृति, भू-सर्वेक्षण, आपदा जोखिम आंकलन और जल-प्रवाह अनुमतियाँ आवश्यक होती हैं, लेकिन इस मामले में सबकुछ सवालों के घेरे में है,
इससे पहले देहरादून के सहस्त्रधारा क्षेत्र में भी एक रिजॉर्ट द्वारा नदी के प्रवाह को बदलने का मामला सामने आया था, जिससे भारी बाढ़ आई और तबाही मची। उस रिजॉर्ट पर प्रशासन ने 7 करोड़ रुपये का जुर्माना लगाया था। इसके बावजूद अब एक और ऐसा ही मामला सामने आना यह दर्शाता है कि न तो प्रशासन ने सीख ली, न ही निजी हितों पर कोई लगाम लगी।
भूगर्भ विशेषज्ञों के अनुसार इस तरह के निर्माण, खासकर नदियों के किनारे और संवेदनशील क्षेत्रों में, भविष्य में भूस्खलन, बाढ़ और ज़मीन धंसने जैसी आपदाओं को आमंत्रित करते हैं।
पर्यावरण अधिवक्ताओं का कहना है कि नदी के बहाव से छेड़छाड़ करना न केवल कानून का उल्लंघन है, बल्कि यह आसपास की जैव विविधता और मानव जीवन दोनों के लिए गंभीर खतरा है।
सरकार और प्रशासन से क्या अपेक्षित है?
- नदी किनारे के निर्माण पर तुरंत रोक लगे।
- निर्माण परियोजनाओं की स्वतंत्र जांच कराई जाए।
- दोषी ठेकेदारों/स्वामियों पर कड़ी कानूनी कार्रवाई हो।
- स्थानीय समुदायों को विकास कार्यों में भागीदार बनाया जाए।
प्राकृतिक आपदाएं अगर मानवजनित लापरवाहियों से और भी भयावह बनती जा रही हैं, तो यह केवल विकास की दिशा पर नहीं, हमारी सोच पर भी बड़ा सवाल खड़ा करता है। उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्य में हर निर्माण से पहले “संवेदनशीलता” और “स्थिरता” की कसौटी पर परख जरूरी है, वरना हम विकास के नाम पर अपने ही विनाश की इमारत खड़ी कर रहे हैं।