शायद ये पहला मौका है जब उत्तराखंड में सत्ता परिवर्तन की दूर दूर तक कोई सुगबुगाहट नहीं दिखती । 2017 के विधानसभा चुनावो में भाजपा को मिली बड़ी सफलता के बाद अमित शाह के करीबी और पार्टी कार्यकर्ताओं में गहरी पैठ रखने वाले त्रिवेन्द्र सिंह रावत को सत्ता की बागडोर सौपी गई । राजनीतिक दांव पेंचो से दूर त्रिवेन्द्र सीधे और सरल इंसान है ये सब जानते है । इस बात की तसदीक सीएम आवास भी करता है की त्रिवेन्द्र के इर्द गिर्द ना तो सत्ता के दलालों की भीड़ है और ना ही धंधेबाजों की …वो पहाड़ के लिए भी बहुत कुछ प्लान करते दिख रहे है … लेकिन त्रिवेन्द्र को पार्टी के कुछ हवाई नेताओ से सावधान रहने की भी जरूरत है ये ऐसे नेता है जो उत्तराखंड में विधायक तो क्या ग्राम प्रधान का चुनाव तक नहीं जीत सकते और ना ही इनका उत्तराखंड के जन सरोकारों से कोई लेना देना है । इनका काम दिल्ली में बैठे आकाओं की चरण वंदना करने के अलावा कुछ नहीं है । और तो और इन्होने उत्तराखंड में भी कुछ ऐसे लोग पाले हुये है जो आए दिन इन महाशय की तारीफ के कसीदे गढ़ते रहते है । ऐसा माहौल बनाने की कोशिश करते है जैसे प्रधान मंत्री मोदी के बाद पार्टी में इन्हीं का नंबर हैऔर ये मोदी के खास है ।अपनी ही सरकार के खिलाफ माहौल बनाने वाले ये महाशय जातिवाद की विषवेल को फैलाने का काम भी कर रहे है कितनी शर्म की बात है जिन लोगों ने राज्य आंदोलन किया उन्होने ऐसा कभी सोचा भी नहीं और ये दिल्ली में बैठ कर उत्तराखंड को हाँकने की कोशिश कर रहे है ।
अलग राज्य बनने के बाद इसी तरह के नेताओं ने राज्य की छवि को धूमिल करने का प्रयास किया है ।पार्टी नेत्रत्व को ऐसे लोगों के खिलाफ कारवाई करनी चाहिए नहीं तो इन नेताओं की करतूत से पार्टी का ही नुकसान होगा । तो ये समझा जाय की इन्हें मोदी का भी भय नहीं है जो अपनी ही सरकार के साथ समांतर सरकार चलाने की कोशिश कर रहे है । क्यूंकी उत्तराखंड की जनता राज्य का विकास चाहती है और ये तभी संभव है जब सरकार को इत्मीनान से कार्य करने दिया जाय । हालांकि दिल्ली से निशानासाधने वाले नेताओं का उत्तराखंड में क्या हश्र हुआ है सब जानते है ये अपनी तिकड़मी चालों से सत्ता के खिलाफ दिल्ली में माहौल तैयार करने के अलावा और कुछ नहीं कर सकते इन जैसे नेताओं के मंसूबों को उत्तराखंड की जनता भी बखूबी समझती है ….
मण्डल आयोग का विरोध करते करते कब आंदोलन अलग राज्य की मांग में तब्दील हो गया पता ही नहीं चला । उत्तराखंड आंदोलन जन आंदोलन बन गया । एक ऐसा आंदोलन जिसमें आहुति देने के लिए सब तैयार थे । और उन्हीं सब आहूतियों की बदौलत उत्तराखंड अलग राज्य बना। 19 साल के उत्तराखंड ने हर क्षेत्र में उपलब्धियां हासिल की है इसमें कोई शक नहीं हाँ कुछ दुश्वारियाँ है अभी भी ….जिन्हें ठीक करने की जरूरत है । लेकिन एक नए राज्य के लिए सबसे पहले है राजनीतिक स्थिरता जो की उत्तराखंड में कभी नहीं रहीं । युवा अवस्था तक आते आते उत्तराखंड ने 9 मुख्यमंत्री देख लिए । इतने छोटे से राज्य में बार बार सत्ता परिवर्तन राज्य को विकास से कोसों पीछे धकेलता रहा । मुख्यमंत्री बदलने की अटकलों से राज्य का काम बुरी तरह प्रभावित होता रहा । विपक्ष ही नहीं सत्ता पक्ष के लोग भी यह मानते रहे हैं कि इस तरह की अटकलों पर विराम लगना चाहिए, क्योंकि इसकी वजह से अफसरशाही भी काम नहीं करती । उत्तराखंड इस तरह की अटकलों का खामियाजा कई बार भुगत चुका है । जब जून 2013 में आई भयानक आपदा के बाद उत्तराखंड में नेतृत्व परिवर्तन की अटकलें बार-बार लग रही थी । आलम यह था कि छह महीने में दर्जनों बार यह चर्चा जोर पकड़ चुकी थी । मुख्यमंत्री, मंत्री, विधायक से लेकर ब्यूरोक्रेसी सबकी नजरें ‘चेंज’ पर टिकी थी और आपदा राहत क्षेत्रों में भी काम नहीं हो पा रहे थे । सीएम की दौड़ में शामिल बड़े नाम आपदा के बाद उत्तराखंड में कम दिल्ली में ज्यादा नजर आ रहे थे । यही क्रम खंडूडी और निशंक के साथ भी दोहराया गया पहले खंडुडी और फिर निशंक को सीएम बनाया गया और फिर अंत में दो महीने खंडुडी को सत्ता सौंपी गई … ये खेल उत्तराखंड की जनता को बिलकुल पसंद नहीं आया और 2012 के चुनावों में जनता ने बीजेपी को सत्ता से बेदखल कर दिया ।वही हाल 2017 में कॉंग्रेस का भी हुआ ।