उत्तराखंड के पहाड़ों में तबाही मची। आपदा प्रबंधन में लगे जवान बचाव अभियान में कूद पड़े। श्रमिकों को तपोवन के सुरंग से सुरक्षित बाहर निकालने का काम जारी है। इस हादसे में जान गंवाने वाले लोगों के परिजनों और घायल लोगों के लिए केंद्र और राज्य की सरकारों ने राहत पैकेज का भी एलान किया है। यह नरमदिली इतने तक ही सीमित नहीं है। निजी क्षेत्र के उदार लोग ऐसे मौकों पर चूकते नहीं हैं। इन सबके बावजूद भी क्षतिपूर्ति मुमकिन नहीं है। सुरक्षित जीवन से जुड़ा यह कार्य आसान नहीं है। इसके बाद पुनर्निर्माण की बारी आती है। कल इसकी भी तैयारी शुरू होगी। दरअसल विकास के सपनों की अपनी अहमियत है।
हिमालय में जल प्रलय की स्थिति अब अक्सर होने लगी है। बरसात का मौसम होना इसके लिए अनिवार्य शर्त भी नहीं रह गया। पिछले साल पूर्वी हिमालय में गर्मी आरंभ होते ही बाढ़ की समस्या शुरू हुई। बौछारों के साथ बाढ़ की लहरों का सिलसिला बरसात के खत्म होने तक चलता रहा। असम के कई जिले इसकी जद में थे। उत्तराखंड की तबाही के बाद हिमाचल प्रदेश के जनजातीय जिले लाहुल स्पीति में करीब 56 पनबिजली परियोजनाओं के विरुद्ध चल रहा जनांदोलन तेज हो गया है। ग्राम पंचायतों ने इस सिलसिले में अनापत्ति प्रमाण पत्र नहीं जारी करने का प्रस्ताव पारित किया है। पश्चिमी छोर की अपेक्षा पूर्वी हिमालय में सक्रिय पर्यावरण संरक्षण समूह बेहतर रूप से संगठित हैं। सूबे की सरकारें प्रकृति के प्रेमियों को चीनी एजेंट बता कर देश का नुकसान ही करती हैं। उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और रक्षामंत्री राजनाथ सिंह से सीख लेने की जरूरत है। आज जनजातीय इलाकों में सुलगते अंगारों को यह हादसा दहकते शोलों में तब्दील करने में सक्षम है। इस मुश्किल से बचना चाहिए।
ऋषिगंगा बैराज को नष्ट करने वाले हिमशिखर के स्खलन के कारण एक बार फिर गाद की समस्या चर्चा में है। हालांकि अन्य बांधों का प्रवाह रोक कर डाउनस्ट्रीम में बाढ़ को नियंत्रित अवश्य किया गया। साथ ही, यह भी सच है कि यदि जल प्रवाह के मार्ग में बांध नहीं होते तो इस कदर नुकसान नहीं होता। दरअसल नदी को बांधने से अपस्ट्रीम में गाद जमना शुरू होता है। इसकी वजह राजनीतिक अर्थशास्त्र का एक सूत्र है, नदी में पानी तो बहे पर शिला और गाद नहीं।