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पर्वतीय लोकजीवन में सावन-भादों महीने को कहा गया खुदेड़ महीना

पर्वतीय लोकजीवन में सावन-भादों महीने को कहा गया खुदेड़ महीना

पहाड़ में सावन-भादों को खुदेड़ महीना कहा गया है। सावन-भादों प्रकृति के उल्लास के महीने हैं। जंगल हरियाली से लकदक हो गए हैं। गाड-गदेरों, नदियों और झरनों का कोलाहल वातावरण में संगीत घोल रहा है. पहाड़ियों ने कोहरे की सफेद चादर ओढ़ी हुई है.  इस अंधियारे मौसम में लोग घरों से बाहर तक नहीं निकल पा रहे। इसकी अभिव्यक्ति यहां लोक गीतों में हुई है। पहाड़वासियों को सावन की इन्हीं फुहारों का हमेशा बेसब्री से इंतजार रहता है। इसकी अभिव्यक्ति नेगी अपने गीत में इस तरह करते हैं, ‘बरखा हे बरखा, तीस जिकुड़ि की बुझै जा, सुलगुदु बदन रूङौ जा, झुणमुण झुणमुण कैकि ऐजा । जब पहाड़ में समय से बारिश नहीं होती तो पहाड़ी गाने गाते है ।

एक अन्य गीत में नेगी उस नव विवाहिता के मन की थाह ले रहे हैं, जो अपने मायके के उल्लास एवं उमंगभरे दिनों को याद करते हुए उनकी याद में घुली जा रही है। तब वह कहती है, ‘सौणा का मैना ब्वे कनु कै रैणा, कुयेड़ी लौंकाली, अंधेरी रात बरखा कु झमणाट, खुद तेरी लागालि’ (मां! सावन के महीने में मैं कैसे रहूं। चारों दिशाएं कोहरे के आगोश में हैं। अंधेरी रात है और बारिश की झड़ी लगी हुई है। ऐसे में मुझे लगातार तेरी याद आ रही है)। नेगी के गीतों में पर्वतीय नारी की विरह की पीड़ा कुछ इस तरह भी अभिव्यक्ति मिली है, देखिए- ‘हे बरखा चौमासी, बण घिरि कुयेड़ी, मन घिरि उदासी’ (चातुर्मास की बारिश, वनों में कोहरा घिर रहा है तो मन में उदासी)। इसी उदासी के बीच नवविवाहिता गा रही है, ‘भादों की अंधेरी झकझोर, न बास-न बास, पापी मोर, ग्वेरै की मुरली तू-तू बाज, भैंस्यूं की घांड्योंन डांडू गाज, तुम तैं मेरा स्वामी कनी सूझी, आंसुन चादरी मेरी रूझी।’ (भादों का अंधेरा छाया है, हे मोर तू मेरे पास न बोल, न बोल। चरवाहों की मुरली तू-तू बज रही है और भैंसों की घंटियों से पर्वत गूंज रहा है। तुम्हें मेरे पति कैसी कठोरता सूझी, आंसूओं से मेरी धोती भीग गई है)

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