उत्तराखंड में हुये नेतृत्व परिवर्तन से एक बात तो साफ हो गई है की राष्ट्रीय दलों के लिये उत्तराखंड महज राजनीति की एक प्रयोग शाला बन गया है . 18 मार्च 2017 को जब त्रिवेंद्र सीएम पद की शपथ ले रहे थे तब लगा था की शायद अब उत्तराखंड को पांच साल के लिये स्थिर सरकार मिल गई है . 57 विधायकों का साथ और केंद्र का वरदहस्त सबकुछ था त्रिवेंद्र के पास .फिर अचानक ऐसा क्या हुआ की जिस सीएम की तारीफ करते मोदी और अमित शाह थकते नहीं थे उसे हटाने में पल भर का भी समय नहीं लगाया .वो भी एसे वक्त में जब बजट सत्र चल रहा था और बजट पर चर्चा हो रही थी .उत्तराखंड की जनता ने 2017 में भाजपा को ऐसा जनादेश दिया की खुद भाजपा ने भी इसकी कल्पना नहीं की थी.फिर जनादेश का ऐसा अपमान क्यूं?
ये बात सच है की त्रिवेंद्र शुरुवाती दौर से ही कुछ लोगोंं के निशाने पर थे.एक वर्ग लगातार उनके खिलाफ मुखर होता रहा कभी सामने से तो कभी पीछे से वार करता रहा .लेकिन अनुशासित माने जाने वाली बीजेपी के आला लीडर इसे सुलझा भी तो सकते थे .पर ऐसा हुआ नहीं .धीरे धीरे ये मर्ज सुलझने के बजाय बढ्ता गया . और त्रिवेंद्र के विरोधियों की संख्या बढती गई. राजनीति में ऐसा होना कोई नई बात भी नहीं है . पर जो सबसे बडा सवाल है वो ये की अपने को उत्तराखंड की सबसे हितैषी कहने वाली बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व ने ये एक बार भी नहीं सोचा की अब 8-10 महिने में नया मुख्यमंत्री ऐसा क्या कमाल कर देगा की राज्य की जनता खुश हो जायेगी विधायक मंत्री संतुष्ट हो जायेंगे .इसका सीधा सीधा मतलब तो यही हुआ की जिन बेलगाम नेताओं पर त्रिवेंद्र ने अंंकुश लगाने की कोशिश की थी अब उन्हे खुली छुट होगी .हरिद्वार महाकुम्भ और 18 मार्च को सरकार के चार साल पूरा होने के लिये जो भव्य तैयारियां की गई है उसका क्या होगा .जिस पर अब तक अकूत धनराशि खर्च हो गई है . अब दोबारा ये सबकुछ होगा .बजट पास हो गया है अब नया मुख्यमंत्री अपने तरीके से योजनाओं की प्लानिग करेगा जाहिर सी बात है यहां भी दिक्कत आयेगी .चार साल के कार्यकाल में की गई घोषणाओं को कैसे अमलीजामा पहनाया जायेगा ये भी नये मुख्यमंत्री के लिये चुनौती है .
और सबसे बडी बात की 57 विधायकों में एक भी विधायक को मुख्यमंत्री के लायक नहीं समझा गया .यानि की दो चार महिने सांसद और विधायक के चुनाव में निपट जायेंंगे .मुख्यमंत्री तीरथ सिहं रावत भले व्यक्ति है लेकिन उनके लिये ये ताज कांटो भरा है .और जो त्रिवेंद्र की विदाई से खुश है उन्हें भी ज्यादा खुश होने की जरुरत नहीं है .क्यूंंकी राष्ट्रीय दलों ने उत्तराखण्ड को हमेशा ऐसे ही हांकना है.
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