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सरकार देवभूमि में विलुप्त होती लोककलाओं को सहेजने के लिए सक्रिय हो गई है। इस कड़ी में राज्य के परंपरागत ढोलवादकों (बाजगियों और ढोलियों) को प्रोत्साहित करने के साथ ही उनकी पारंपरिक विधा को संरक्षण देने की पहल की गई है। उत्तराखंड की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को संजोये रखने में यहां के परंपरागत ढोलवादकों (बाजगियों और ढोलियों) की अहम भूमिका है। ढोलवादन की उनकी पारंपरिक विधा का अदभुत संसार है और यहां सोलह संस्कार तो उनके बिना अधूरे हैं। उन्हें निश्शुल्क वाद्ययंत्रों और वेशभूषा का वितरण करने के साथ ही उनकी कला को जीवित रखने के लिए अनुसूचित जाति बहुल गांवों में सांस्कृतिक केंद्र बनाए जा रहे हैं। इन सांस्कृतिक केंद्रों में परंपरागत ढोलवादक और लोककला से जुड़े लोग न सिर्फ रिहर्सल कर सकेंगे, बल्कि वहां परंपरागत वाद्ययंत्र भी सहेजे जाएंगे। संस्कृति विभाग ने अनुसूचित जाति उपयोजना में अनुसूचित जाति की विलुप्त होती लोककला को जीवित रखने के उद्देश्य से अनुसूचित जाति बहुल गांवों में सांस्कृतिक केंद्र खोलने की पहल की है। संस्कृति विभाग की निदेशक बीना भट्ट के अनुसार वर्ष 2018-19 में अनुसूचित जाति बहुल गांवों में सांस्कृतिक केंद्र भवन के चार प्रस्ताव आए। इनमें चकरेड़ा (टिहरी), दुगड्डा में भवन तैयार हो चुके हैं, जबकि भरपूर (टिहरी) और जसपुर (द्वारीखाल) में निर्माणाधीन हैं। इस वर्ष बागेश्वर में दो और टिहरी में एक सांस्कृतिक केंद्र भवन प्रस्तावित है।
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