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कृषि कानूनों के विरोध में मैदान का किसान भले ही आंदोलित हो, लेकिन प्रदेश में पहाड़ का किसान इससे दूर ही है। सरकार का दावा है कि किसानों की समस्याओं की परवाह की जा रही है, इसलिए भी पहाड़ का किसान इस आंदोलन में शामिल नहीं है। लेकिन, वजह सिर्फ इतनी भर नहीं है।अमर उजाला ने जब कारणों की पड़ताल की तो यह सच्चाई उभर कर सामने आई कि सारा मामला जोतों के आकार और किसानों के संगठित होने का है। इन दोनों ही मामलों में उत्तराखंड के पर्वतीय किसान पीछे हैं। मसलन राज्य का 99 प्रतिशत सीमांत किसान पहाड़ में निवास करता है।
राज्य में करीब आठ हजार बड़े किसान हैं और इनमें से बहुत बड़ी संख्या ऊधमसिंह नगर और हरिद्वार जिले से ताल्लुक रखती है। मैदान में किसान ज्यादा संगठित भी हैं। जानकारों का मानना है कि मैदान के जिलों को हटा दिया जाए तो प्रदेश के कृषि महकमे का अनाज के मामले में आत्मनिर्भरता का दावा ही खतरे में पड़ जाएगा। इस दौर में भी पहाड़ का किसान ट्रैक्टर वाला नहीं, कंधे पर हल संभालकर चलने वाला है। कड़वा सच यह भी है कि प्रदेश में कृषि का बजट कुल बजट के चार प्रतिशत से अधिक कभी नहीं रहा।