उत्तराखंड की राजनीति में कांग्रेस अब पूरी तरह राष्ट्रीय महासचिव और पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत के इर्द-गिर्द केंद्रित नजर आने लगी है। हालांकि पार्टी ने हरीश रावत के मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित कर चुनाव में जाने के सुझाव को अब तक तवज्जो नहीं दी है, लेकिन चुनाव अभियान समिति की कमान सौंप कर संकेत जरूर दे दिए हैं कि अगले कुछ महीनों में उत्तराखंड में वही सबसे अहम भूमिका में रहेंगे। वैसे, सच तो यह है कि रावत के अलावा अभी कांग्रेस के पास कोई ऐसा चेहरा है भी नहीं, जो उन्हें चुनौती दे सके। हरीश रावत अपनी तरह के अकेले नेता हैं। उन्हें मालूम होता है कि कब किसके कंधे पर हाथ रखना है और किसे पटखनी देनी है। उनके हर कदम को उनके सहयोगी और विरोधी सतर्क निगाहों से देखते हैं। उनके इसी रणनीतिक कौशल के बूते कांग्रेस को उम्मीद है कि उत्तराखंड में पिछले चार विधानसभा चुनावों से चली आ रही सत्ता में बदलाव की परंपरा इस बार भी कायम रहेगी।
रावत तीक्ष्ण राजनीतिक बुद्धि के लिए जाने जाते हैं। पार्टी के बाहर और भीतर राजनीति कैसे करनी है, इसे उनसे ज्यादा कोई नहीं जानता। उत्तराखंड के अलग राज्य बनने के अब तक के 20 वर्ष के उनके राजनीतिक सफर को ही देखें तो वह काफी उतार-चढ़ाव भरा रहा है। इस दौरान उन्होंने कई बार हाईकमान के खिलाफ मोर्चा खोला, मगर अनुशासन की हद कभी पार नहीं की। वर्ष 2002 में उत्तराखंड में जब पहले विधानसभा चुनाव हुए, उस समय रावत के पास ही प्रदेश कांग्रेस की कमान थी। वह मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार थे, मगर हाईकमान ने उनके बजाय नारायण दत्त तिवारी को मुख्यमंत्री बना दिया। रावत और उनके समर्थकों ने इसका पुरजोर विरोध किया। तिवारी हालांकि पूरे पांच साल सरकार चला ले गए, मगर उन्हें रावत खेमे के विरोध का कदम-कदम पर सामना करना पड़ा। दिलचस्प यह कि यह सब उन्होंने किया, मगर अनुशासन से बाहर कभी नहीं गए।
ऐसा ही कुछ वर्ष 2012 के तीसरे विधानसभा चुनाव के दौरान भी हुआ। कांग्रेस से वह मुख्यमंत्री पद की दौड़ में सबसे आगे दिख रहे थे, लेकिन जब सरकार बनाने का अवसर आया, विजय बहुगुणा बाजी मार ले गए। इसके बावजूद उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। वर्ष 2013 की केदारनाथ आपदा के बाद वर्ष 2014 की शुरुआत में विजय बहुगुणा को कुर्सी छोड़नी पड़ी तो अंतत: रावत मुख्यमंत्री बनने में कामयाब हो गए। यह बात अलग है कि इसके तत्काल बाद प्रदेश कांग्रेस में बिखराव शुरू हो गया। उनके मुख्यमंत्री बनते ही पूर्व केंद्रीय मंत्री सतपाल महाराज ने कांग्रेस छोड़ भाजपा का दामन थाम लिया। फिर मार्च 2016 में पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा समेत नौ विधायक भी कांग्रेस छोड़ भाजपा में चले गए। अगले कुछ महीनों में कैबिनेट मंत्री यशपाल आर्य व विधायक रेखा आर्य ने भी भाजपा का रुख कर लिया। रावत हालांकि तब न्याय पालिका के हस्तक्षेप से सरकार बचाने में कामयाब रहे।
अलबत्ता वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में बुरी गत बनने से कांग्रेस को वह नहीं बचा पाए। भाजपा 70 सदस्यीय विधानसभा में 57 सीटें जीत कर सत्ता में आ गई और कांग्रेस महज 11 पर सिमट गई। रावत स्वयं दो सीटों पर चुनाव हार गए। इसके बावजूद वह उत्तराखंड में कांग्रेस के सबसे बड़े नेता के रूप में खुद को स्थापित करने में सफल रहे। कांग्रेस हाईकमान ने उन्हें राष्ट्रीय महासचिव बनाकर पहले असम और फिर पंजाब जैसे महत्वपूर्ण राज्य के प्रभारी की जिम्मेदारी सौंपी। पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह और नवजोत सिंह सिद्धू के बीच टकराव का समाधान निकालने में भी वह कामयाब हुए। यही वजह रही कि टकराव खत्म करने के लिए उन्होंने जो फार्मूला सुझाया, उसे और उनके रणनीतिक कौशल को पार्टी ने माना। रावत हाईकमान को यह समझाने में भी कामयाब रहे कि पंजाब का फार्मूला उत्तराखंड में भी अमल में लाया जा सकता है।
उम्र के जिस पड़ाव पर रावत खड़े हैं, अच्छी तरह समझते हैं कि सक्रिय राजनीति में उनके पास चंद साल ही बचे हैं। राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस की फिलहाल जो स्थिति है, उस परिप्रेक्ष्य में उन्होंने केंद्र के बजाय सूबे की राजनीति पर ध्यान केंद्रित करने की रणनीति अपनाई है। इसीलिए पिछले दिनों उन्होंने यह संकेत दे भी दिए कि वह जल्द ही पंजाब के प्रभारी का दायित्व छोड़ देंगे और उत्तराखंड विधानसभा के अगले वर्ष की शुरुआत में होने वाले चुनाव की तैयारी में जुट जाएंगे। रावत को कांग्रेस ने प्रदेश कांग्रेस कमेटी की चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी दी हुई है। इस स्थिति में साफ है कि विधानसभा चुनाव से पहले के पांच-छह महीने न केवल हरीश रावत के लिए महत्वपूर्ण साबित होंगे, बल्कि ये राज्य में कांग्रेस के भविष्य की दिशा भी तय करेंगे।