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चैत्र माह के प्रथम दिन यानि संग्राद को उत्तराखण्ड के पर्वतीय अंचल में बालपर्व फूलदेई का त्यौहार शुरु हो गया है । जिसकी तैयारियां बच्चे कई दिन पहले से कर लेते है । उनके लिए रिंगाल की कैंडी (टोकरी) की लाल मिट्टी से पुताई कर सुन्दर वसुधारे डाले जाते हैं। जिसमें बच्चे फूलदेई के दिन फूल लेकर घर-घर की देहरी पर फूल डालते है । जंगलों में खिले बुरांश, मेहल, बासिंग के फूल चुनकर लाना रोमांच भरा होता है । खेतों में खिले भिटौर के फूल, घर के आसपास खिली प्योंली, आड़ू और खुमानी के कुछ फूल फूलदेई के दिन बच्चों की फूल टोकरी में सजकर हर घर की देहरी पर बिखेरते है। यह क्रम एक महिने यानि बैसाखी (बिखौत) तक चलता है .बच्चे फूलदेई गीत – “फूलदेई, छम्मा देई। दैणी द्वार, भर भकार। यो देई कैं बारम्बार नमस्कार। फूलदेई, छम्मा देई।” गाकर घर को आशीर्वचन देंतेेहै । लोग इन्हे चावल गुड़ और सिक्के देते है। कुुुछ जगहों पर इन चांवलों और गुड़ से यहाँ के पारम्परिक पकवान ‘साई’ बनाकर लोगों में बांटने की परम्परा है। आज के दिन से कुमाऊँ में बेटियों को दी जाने वाली भिटोई (भिटौली) शुरुवात हो जाती है।
शिव के कैलाश में सर्वप्रथम सतयुग में पुष्प की पूजा और महत्व का वर्णन सुनने को मिलता है। पुराणों में वर्णित है कि शिव शीत काल में अपनी तपस्या में लीन थे ऋतू परिवर्तन के कई बर्ष बीत गए लेकिन शिव की तंद्रा नहीं टूटी। माँ पार्वती ही नहीं बल्कि नंदी शिव गण व संसार में कई वर्ष शिव के तंद्रालीन होने से बेमौसमी हो गये। आखिर माँ पार्वती ने ही युक्ति निकाली। कविलास में सर्वप्रथम प्योंली के पीले फूल खिलने के कारण सभी शिव गणों को पीताम्बरी जामा पहनाकर उन्हें अबोध बच्चों का स्वरुप दे दिया। फिर सभी से कहा कि वह देवक्यारियों से ऐसे पुष्प चुन लायें जिनकी खुशबू पूरे कैलाश को महकाए। सबने अनुसरण किया और पुष्प सर्वप्रथम शिव के तंद्रालीन मुद्रा को अर्पित किये गए जिसे फूलदेई कहा गया। साथ में सभी एक सुर में आदिदेव महादेव से उनकी तपस्या में बाधा डालने के लिए क्षमा मांगते हुए कहने लगे- फुलदेई क्षमा देई, भर भंकार तेरे द्वार आये महाराज ! शिव की तंद्रा टूटी बच्चों को देखकर उनका गुस्सा शांत हुआ और वे भी प्रसन्न मन इस त्यौहार में शामिल हुए तब से पहाड़ों में फूलदेई पर्व बड़े धूमधाम से मनाया जाने लगा जिसे आज भी अबोध बच्चे ही मनाते हैं और इसका समापन बूढ़े-बुजुर्ग करते हैं।